नई दिल्ली I मौका था अरुण शौरी की नई नवेली किताब 'अनिता गेट्स बेल' के विमोचन का, लेकिन तीर चले न्यायपालिका की खत्म होती मर्यादा पर और निशाने पर थे चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा. चाहे जस्टिस एपी शाह हों या फिर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आर एम लोढा या फिर खुद अरुण शौरी. सबने न्यायपालिका की लगातार बिगड़ती दशा, कार्यपालिका के सामने घुटने टेकने और अपनी मर्यादा का ख्याल ना कर सिर्फ अहंकार दिखाने को लेकर कभी नाम लेकर कभी पदनाम लेकर और कभी आड़ लेकर खूब तीर चलाए.
कार्यक्रम में वरिष्ठ वकील और संविधान के गहन जानकार फली एस नारीमन ने कुछ तंजिया लहजे और कुछ हास्य व्यंग्य का पुट डालते हुए कभी अपनी बात कही तो कभी किताब के कुछ पन्ने पढ़े.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आर एम लोढा ने अपनी बेबाक शैली में न्यायपालिका पर गहरा रहे संकट की ओर ध्यान दिलाया. उन्होंने दो टूक कहा कि न्यायपालिका की व्यवस्था दरक रही है. हालात लगातार बिगड़ रहे हैं.
जस्टिस लोढ़ा ने कहा कि न्यायपालिका पर कार्यपालिका का असर अगर ऐसे ही बढ़ता रहा तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के जज खुद ही न्यायपालिका की स्वायत्तता की गारंटी या भरोसा नहीं दे पा रहे. ये लोकतंत्र के लिए तो अच्छा नहीं ही है साथ ही अगर ऐसा ही होता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब न्यायपालिका की दशा बेहद जर्जर और बदहाल हो जाएगी. अभी बहुत कुछ किया जाना है क्योंकि ये कांपता हुआ तंत्र है दरकता हुआ. समय कम है और सुधारने का काम ज्यादा.
नारीमन ने कहा कि हमारे यहां कोर्ट ज्यादा न्याय कम है. वहीं कोलेजियम की मीटिंग ज्यादा और उससे निकलने वाले नतीजे कम हैं. बहुत से बड़े और पेचीदा मामलों की सुनवाई ट्राइब्यूनल को सौंप दी जाती है. लेकिन मुझे ये ट्राइब्यूनल कतई नापसंद है. क्योंकि ट्राइब्यूनल के फैसले को कोर्ट में चुनौती दी जाती है फिर वही सुनवाई का दौर शुरू हो जाता है. अपील दर अपील... न्याय और न्यायव्यवस्था में विश्वास का पर्दा और जर्जर होता जाता है.
नारीमन के बाद बोलने आये दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एपी शाह. शाह ने निशाना सीधे मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर साधा. कभी जज लोया की मौत के मुकदमे की आड़ से तो कभी अरुणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल की खुदकुशी से पहले लिखे गये पत्र से कठघरे में आये सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश या फिर प्रसाद फाउंडेशन के जरिये जमीन घोटाले का मामला.
कुल मिलाकर कहा ये गया कि न्यायपालिका का नेतृत्व दोषपूर्ण है. अपने भाषण के अंत में तो जस्टिस शाह ने साफ साफ कह दिया कि उनकी नजर में जज लोया की मौत की जांच की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पूरी तरह गलत था. क्योंकि उसने उस ट्रायल कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया जो ट्रायल कायदे से हुआ ही नहीं. ट्रायल कोर्ट का जजमेंट बिना ट्रायल के ही आ गया.
कोर्ट ने अपने साथी उन जजों को सुपरमैन या भगवान मान लिया जो मौत से पहले और मौत के समय तक जज लोया के साथ रहे. साथी जजों ने बयान दर्ज भी कराये तो किसी शपथ पत्र के जरिये नहीं. आखिर क्यों... सबसे ऊंची न्यायपालिका को ये सवाल क्यों नहीं सूझे. सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणी तो की कि ये याचिका पॉलिटिकल मोटिवेटेड है, लेकिन जजमेंट में ऐसा कोई तथ्य नहीं बताया जिससे ये सब साबित हो. जबकि एक बड़े राजनीतिक नेता के केस की सुनवाई जज लोया कर रहे थे.
ऐसे ही कई तथ्यों के बताये जाने पर भी सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अनदेखी की. इस फैसले की आलोचना काफी हुई लेकिन सर्वोच्च न्यायपालिका ने इसका संतोषजनक जवाब नहीं दिया. जबकि आज पूरी पारदर्शिता के समय में न्यायपालिका को भी चाहिए कि अपने ऊपर उठने वाले सवालों के जवाब देने के लिए या खुद को पाक साफ दिखाने के लिए कोई ऐसा ही पारदर्शी मैकेनिज्म बनाये.
किताब के लेखक संपादक, पत्रकार और राजनेता अरुण शौरी ने कहा कि न्यायपालिका अजीब से दौर से गुजर रही है. क्योंकि कहीं चीफ जस्टिस ने सरकार के आगे घुटने टेक दिये हैं तो किसी ने इसी पद पर रहते हुए सरकार के आगे आंसू बहाये. ये कतई उचित नहीं है. न्यायपालिका को चाहिए कि सरकार उनकी नहीं माने तो वो उसे डांटें. कोर्ट के आदेश की बेअदबी करने का मुकदमा दायर करें. कार्रवाई करे. पूरा देश साथ देगा.
जस्टिस लोढा ने आज तक से बातचीत करते हुए भी कहा कि ये नेतृत्व की कमजोरी ही है. वर्ना न्यायपालिका की अपनी गरिमा है. इसे वापस लाना होगा. समारोह में कानून, न्याय, राजनीति और पत्रकारिता जगत के दिग्गज मंच पर बोलने वालों में भी थे और सुनने वालों में भी.
पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी, यशवंत सिन्हा, शेखर गुप्ता, सईद नकवी, विनोद दुआ तो थे ही, साथ ही वकीलों और पूर्व जजों से खचाखच भरा सभागार, जिसमें जब हस्तियों ने बोलना शुरू किया तो ऐसी खामोशी थी गोया दिल भी धड़कना भूल गये हों.
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